मैं आज की नारी हूं ।।
तड़फती बिलखती में
लाज बचाती
मैं सहमी सी रहती
मैं बेबस लाचारी हूं ।।
हां मैं आज की नारी हूं ।।
घर से निकलना मुझे आम हैं
सुरक्षित लौटना मुश्किल काम हैं ।।
मुझे ऊपर से लेकर नीचे तक
निहारा जाता हैं ।
वस्त्रों की मौजूदगी में भी
मुझे अंदर तक झांका जाता हैं
मैं शर्म से मुरझा जाती हूं ।।
हां मैं आज की नारी हूं ।।
जिस घर में मैं जन्मी
वो पराया कह कर टाल देते हैं ।
पराए घर में दहेज़ लोभि
मेरी इज़्जत को तोल देते हैं ।
बाबूजी की इज़्जत का
ख्याल रखती हूं
हर बार ज़हर का घूंट
सा पी जाती हूं ।
हां मैं आज की नारी हूं ।।
घुंघटे में भी निकलू घर से
वो पहचान जाते हैं ।
फलाने की बहु वहां थीं
ऐसे लांछन लगाते हैं ।।
मुझे कैद कर दिया जाता हैं
मैं अपने नारित्व की मारी हूं ।
हां मैं आज नारी हूं ।
विनय कुमार झा
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