जब तक समाज में भ्रष्ठ बुद्धिजीवियों का सम्मान होता रहेगा तब तक एक गरीब वेवश और लाचार मजदूर भूख से दम तोड़ेगा ।

फ़ोटो – कृपाल गौतम ।। परदेश के लिए हुए मजबूर ग्राम करौंदा के मजदूर आधे से ज्यादा आदिवासियों ने छोड़ा घर । कोरोना काल की स्थिति से अभी ठीक से उभरे भी नहीं है और यह संकट की घड़ी आन पड़ी है । जहां एक तरफ सरकार ने मजदूरों को उनके ही गांव में काम दिलाने का वादा किया वहीं दूसरी तरफ सरकार अपने किए हुए वादों से मुंह फेरती नज़र । मनरेगा से ग्रामीणों को आस थी कि ये हमें आर्थिक संकट से निजात दिला सकता है , मगर ग्रामीणों की आशा पर पानी फिर गया । कहीं लॉक डाउन जैसी स्थिति पुनः जन्म ना लेले वरना परिवार अनाथ हो , दो वक्त की रोटी के फिर से मोहताज हो जायेंगे । हमारे सामने जो छोटे छोटे संकट आते हैं यदि हम इन्हें नहीं समझ पाए तो एक दिन यही संकट भयानक रूप ले लेते है । और जिसमें कई परिवार तबाह हो जाते है । एक ऐसी ही घटना हमारे गांव के नजदीक ही देखने को मिली जहा दर्जनों मजदूर अपना घर छोड़ने के लिए मजबूर हो गए , सिर्फ इसलिए की वो शिक्षित नहीं है या फिर इसलिए की वो गरीब है । यह दोनों कारण सर्वथा अनुचित है । क्योंकि अपने हक की लगाई लड़ने के लिए न तो शिक्षा बीच में आती है और ना गरीबी । बीच में आता है तो सिर्फ बलिदान , यहां बलिदान का अर्थ किसी की जान लेकर या जान देकर नही है । बलिदान का अर्थ हमारे त्याग और हमारी कुर्बानी को परिभाषित करता है , कि हमनें अपने हक की लड़ाई कहां तक लड़ी है । क्योंकि हमारी सरकार का ये कर्त्तव्य है कि वो हमें रोजगार दे , देश की बढ़ती हुई जनसंख्या को देखकर सरकार ने रोजगार के लिए कोई खास प्रबंध नहीं किया हैं । बल्कि विकास का झांसा देकर हमसे हमारा अधिकार छीन लिया जहां दिन में हजार मजरूर काम पाते थे वहां सरकार ने एक मशीन से एक ही दिन में काम करवा दिया मगर अधूरा । विकास तो हुआ नहीं हम पूरी तरह से बेरोजगार हो गए । आधुनिकरण करना जरूरी है तो हमें हमारा हक भी चाहिए । जो वादे सरकार बनने से पहले करती है उनमें से किसी भी एक पर खरी नहीं उतरती है । खामियाजा हमें भुगतना पड़ता है ।और भुगत रहे हैं ।
फोटो – कृपाल गौतम ।। दर्जनों आदिवासी परिवार बच्चों समेत घर छोड़कर परदेश के लिए पलायन करने पर मजबूर हो गए। कल शाम करौंदा बस स्टेंड पर आदिवासी परिवार छोटे छोटे बच्चों समेत बस में बैठकर रवाना होते हुए देखे । सोचनीय बात तो यह है कि गरीबी की मार झेल रहे आदिवासी बच्चों - महिलाओं तथा लोगों के चेहरों पर बेबस मायूसी भरा दर्द छलक रहा था, जो दर्द हम देख सकते है महसूस कर सकते है वो दर्द हमारे यहां के नेता या मंत्री नहीं देख सकते , उन्हें बस हमारी जरूरत सिर्फ चुनाव की घड़ी आते ही पड़ती हैं ना उससे पहले ना उसके बाद । यही कारण है कि देश में आज अराजकता गरीबी और भुखमरी व्याप्त है । यदि वो गांव गांव जाकर देखे तो उन्हें पता चले आज भी हम आजाद होकर एक गुलाम की तरह जीने को मजबूर है , गांव के आदिवासिओं की भौगौलिक स्थिति कागजों में तो तेजी से बदल रही है, लेकिन धरातलीय व्यवस्था कुछ और देखने को मिल रही है। इससे साफ जाहिर होता है सरकार को जो अवगत कराया जा रहा है वो उनके अनुसार उचित है क्योंकि गांव बदल रहा है । मगर गांव की मिट्टी पर जब वो देखेंगे तब शायद यकीन कर पाए की आज भी गांव में एक गुलाम भारत बसता है जो आज भी अपने हक का हासिल नहीं कर पा रहे , जो वक्त की रोटी के लिए आज भी मोहताज है । फिर कैसे तरक्की गिनवाई जा रही है । कुछ पल के लिए मुझे कॉमेडियन वीरदास की वो बातें याद आती है जो उसने कहीं है , वो कहीं कहीं पूर्ण रूप से सत्य है । भले ही उसने जगह उचित ना चुनी हो । आज भी उसके अनुसार बताए गए भारत में हम जी रहे है ।
फ़ोटो – कृपाल गौतम ।। दर्जनों की संख्या में दो जून की रोटी का बंदोबस्त करने की जुगत में बस में बैठकर पलायन कर गए लोग सारी कहानी बयां करते नजर आये । गांव की अधिकांश आदिवासी आबादी अपने परंपरागत आवास से बाहर रहती है। और इसका मुख्य कारण है भ्रष्ठाचार । यह सर्वविदित है कि आदिवासियों का पलायन आर्थिक संकट के कारण बढ़ रहा है, जब तक समाज में भ्रष्ठ बुद्धिजीवियों का सम्मान होता रहेगा तब तक एक गरीब वेवश और लाचार मजदूर दम तोड़ेगा यह चिंताजनक तथ्य के कुछ अन्य पहलुओं पर रोशनी डालती । मगर इससे किसी को कुछ फर्क नही पड़ने वाला हमने जानकारी ली इस संबंध में उन्होंने बताया है कि गांव में रोजगार नहीं मिलने पर दिल्ली व देश के अन्य बड़े शहरों में मजदूरी हेतु निकलना पड़ता है जिससे परिवार व बच्चों का भरण-पोषण हो जाता है। हमें सिर्फ परिवार पालने के लिए शहरों में पलायन करना पड़ता है ना की धनवान बनने के लिए , हमें बच्चों की शिक्षा से अधिक उनकी भूख की परवाह होती है और इसी के चलते हमारे बच्चों की पढ़ाई-लिखाई वेहद प्रभावित होती । मेरा आजाद भारत में जन्म हुआ मेरा पिता मजदूर था उसने मुझे नहीं पढ़ाया क्योंकि वह समर्थ नहीं थे , सो आज में मजदूर पैदा हुआ और मजदूर बना । यदि स्थिति मेरे बच्चों के साथ है ना में उन्हें पढ़ा सकता है और ना ही कोई अच्छी नौकरी या धंधा करवा सकता है । शायद यही हमारा नसीब हो । ? ? ? आखिर कौन है इसका जिम्मेदार ? खबर – कृपाल गौतम । लेख – विनय कुमार झा ।।

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2 Comments

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    1. https://www.humsafarforyou.online/2021/11/Tribesman.html

      Yes thare an English version

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