जहां संघर्ष का दूसरा नाम यदि कामयाबी है तो वहीं संघर्ष का नाम किसान भी है “ मिट्टी का किसान” ।

                “ मिट्टी का किसान ”



जहां कही भी किसान शब्द का उच्चारण सुनता हूं , दिमाग में एक ही प्रतिबिंब सामने आता है , एक फटी पुरानी धोती पहने हुए , माथे से साफा बंधा हुआ और पनीसा गिरता हुआ , मिट्टी से सना हुआ , बिखरे बिखरे से बाल एक दुबला पतला सा व्यक्ति जिसके मन में हजारों सवाल उमड़ रहे है जो विवश और लाचार नज़र आता है । जब भी कभी उसे चलते हुए देखता हूं तो ऐसा प्रतीत होता हैं की जैसे सारा दिन बिना कुछ खाए पिए मेहनत करके कहीं आ रहा है या कहीं जा रहा है । यह वो किसान है जो माटी से जुड़ा हुआ है जिस पर देश के सम्मान का भार है । मगर उसे कहीं अधिक उसके कंधों पर उसके परिवार का भार है , जवान बेटे का कम मगर जवान बेटी का अधिक भार है ।


यदि हमारे दिमाग में ऐसी छवि बनती है एक किसान को देखकर तो इसके लिए सौ प्रतिशन हमारा शासन जिम्मेदार है । क्योंकि हम जब से देखते आ रहे है तभी से किसान की स्थिति में कोई सुधार नहीं हुआ ।
एक समय वो था जब सरदार पटेल इस देश के गृह मंत्री थे तब उन्होंने किसानों के हर संभव प्रयास किया , इसका मुख्य कारण यह था की वो एक साधारण किसान परिवार से थे । उन्हें किसानों के दुख और दर्द का अहसास था । उन्होंने किसानों को देश की आंतरिक शक्ति बताया जिसके बिना देश की अर्थ व्यवस्था को निराधार बताया । इसके साथ साथ राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने खुद दावा किया कि भारत गांव में बसता हैं ।




आज हम सभी उस भारत के दर्शन अपने गांव में ही कर रहे है । देश की अर्थव्यवस्था का भार किसानों पर होते हुए भी आज देश का अपनी जरूरत की चीज़ों का मोहताज है । कहीं कोई खाद के लड़ रहा है कोई बीज के लिए लड़ रहा है , कोई पानी के लिए लड़ रहा हैं कोई जरा जरा सी जमीन पर लड़ रहा हैं । सिर्फ यही नहीं कई मुश्किल से मुश्किल संघर्ष करने के बाद यदि फसल तैयार भी कर लेता है तो उसमे हानि होने के बाद वो खुदकुशी कर कर लेता है । यदि दर्द के पर्यायवाची शब्द लिखे जाए तो उनमें किसान लिखना कोई गलत बात नही होगी । क्योंकि दर्द और परेशानियों का दूसरा नाम ही किसान है । यदि आज देश में कोई नया निमय या कानून लागू होगा है और यदि उससे किसी भी प्रकार की हानि दर्ज की जाती है तो वह किसानों की ही होती है । किसान वो बीच की कड़ी है जिसे हर तरफ से सिर्फ परेशानियों का ही सामना करना पड़ता हैं । एक उदाहरण से समझते है यदि बारिश जोरदार हो गई तब भी किसान का नुकसान है यदि बारिश नहीं भी हुई तब भी किसान का नुकसान है । 
मगर देखो गौर से उस दुबले पलते थके हारे हुए व्यक्ति को मिट्टी से सना हुआ है माथे से पसीना टपक रहा हैं , क्या वो आपको कहीं से टूटा नजर आता है । 
वो हर मुश्किल से मुश्किल घड़ी का सामना करने के लिए तैयार रहता है । वो दिन और रात की तो कभी परवाह नहीं करता , जहां हम नंगे पांव जाने से कतराते हैं वो वहा नंगे पैर चलते है और वही सो भी जाते है । 


देखो ऐसा है हमारे देश का किसान , मगर किसे परवाह है उसकी । 
कभी उसने अंधेरी रात की शिकायत नहीं की कभी उसने विषैले तत्वों के होने की शिकायत नहीं , कभी उसने सर्दी या तेज धूप की शिकायत नहीं की । देखो ना कितना मिलता जुलता है हमारा किसान हमारे देश के जवानों से । 
मगर हमारे जवानों और किसानों जमीं और आसमां का फर्क है । जहां एक जवान मरता है उसे शहीद की उपाधि दी जाती है तिरंगे में उसका शव रखा जाता है । उसके परिवार को मुआवजा और साथ साथ सरकारी सुविधाएं भी दी जाती है । फिर किसान और जवान के बीच इतना अन्याय क्यों । एक सरहद पार जान देता है देश के लिए लड़ते लड़ते , तो दूसरा खेत में जान देता है गरीबी और भुखमरी से लड़ते लड़ते । भारत के लिए कृषि प्रधान देश कहा जाता है ,क्या सिर्फ इसी लिए कि एक किसान भुखमरी और गरीबी से लड़ते लड़ते जान दे दे । उसके परिवार के लिए ना कोई मुआवजा ना कोई सरकारी सुविधाएं , क्यों ? क्योंकि वो एक किसान है । 





एक जवान के लिए अपने जीवन में संघर्ष सिर्फ कुछ वर्षो तक करना होता है । मगर एक किसान जब से होश संभालता है तब से लेकर जीवन के अंत तक संघर्ष करता है । मगर फिर भी यह सब जानते हुए भी हमारा प्रशानन और शासन मौन रहता है । क्या इसलिए हमारे देश में किसानों की संख्या अधिक है या इसलिए की वो गरीब है । सत्ता के चंद लालची लोग सत्ता में आने के लिए अपना जमीर तक बेच देते है । और भोले भाले किसान उनके बिछाए जाल में फस जाते हैं । और आने वाले फिर पांच वर्षो के लिए अपना सब कुछ हार जाते है । फिर से वही संघर्ष फिर से वही कहानी । और इसी घटना क्रम में चलते हुए जिस दिन किसान पर दुखों के अनगिनत पहाड़ टूटते हैं । 
वो मर जाता है । ।




लेख – विनय कुमार झा 



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