कविता कैसे हो तुम
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ऐ गुलशन ये पतझड़ कहो कैसे हो तुम ,
शाखों पर पत्ते नहीं ,
मगर कोपले मुस्कुराती
पतझड़ हो या बसंत ,
बहारें तो आती जाती ।
ये सड़के ये वीराने कहो कैसे हो तुम
गांव में बैलगाड़ी या पैदल हो तुम
वो पगडंडी पर साइकिल
या किसी प्रतीक्षालय में हो तुम ।
चल पड़े हो कही या
वहीं रुके हो तुम
हाल भी पहले सा हैं
या बदल चुके हो तुम
ये सड़के ये वीरानों कहो कैसे हो तुम ।
एक अरसा बीतने को आया है
मुझे पीपल की छांव ने बुलाया है
क्या चलकर आऊं तेरे आंगन
क्या बरगद की लटो ने बुलाया है ।
क्या अब भी खेतों में वो गाना गाती है
क्या अब भी पणिहारी पनघट पर आती है ।
मुझे वो गलियां बहुत रुलाती है ।
क्या उन गलियों में अब भी रहते हो तुम
ये सड़के ये वीरानों कहो कैसे हो तुम ।।
क्या चांद छत पर उतरता है
क्या किरने तराने गाती है
क्या सर्दी की धुप में वो बाल सुखाने आती हैं ।
लटों में उसकी क्या अब भी कंघी उलझ जाती हैं
क्या अब भी वो स्कूल में वो पड़ने जाती हैं
क्या अब भी वो माथे पर बिंदी लगाती हो तुम
कहो मेरी शहजादी कैसे हो तुम
नंगे पैरो से गर्म धूल पर चलना
पांव जलने पर वो पायल की खनखन सुनना
क्या अब भी पायल पहनते हो तुम
बताना जरा मुझे उसका हाल ये सड़के
क्या स्कूल से उसे छोड़ने घर जाते हो तुम
कैसी है वो मुझे खत में लिखना तुम
ये सड़के ये वीराने कहो कैसे हो तुम ।।
Kavita By Vinay Kumar Jha
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