भगत सिंह एक ऐसा नाम जो कानों तक पहुंचते ही हर व्यक्ति के मन में एक ऐसी छवि उभर आती हैं जो एक तेज तर्रार, जोशीला और उग्र स्वभाव वाली हो । भगत सिंह के लिए क्रांतिकारी विचारधारा के लिए भी जाना जाता हैं ।हालांकि भगत सिंह के लिए कई इतिहासकारों ने अपने अपने अंदाज में बयां किया हैं , मगर अधिकतर हमनें जहां भी भगत को पढ़ा और जानने की कोशिश की हैं हमें भगत सिंह का किरदार एक उग्र स्वतंत्रता सेनानी के रूप में ही मिला हैं जैसे केंद्रीय संसद में बम फैंकना, साथियों के साथ मिलकर सांडर्स की हत्या करना और कई रैलियों/सभाओं में हिस्सा लेना जबकि भगत सिंह असल मायने में मजदूरों और किसानों के हितों के लिए लड़ें । उनके विचारों और लेखों में सामाजिक सद्भाव की भावना साफ साफ़ झलकती हैं । वो कहते थे कि अंग्रेजों मात्र के चले जाने से हमारी पराधीनता समाप्त नहीं हो जाएगी हमें उन बुराइयों के खिलाफ लड़ना है जो मनुष्य को मनुष्य का दर्जा देने में कतराती हैं ।
उन्होंने जब भी किसी बेबस या मजलूम को देखा तब तब उनका मन व्यथित हुआ और उनके मन में एक ही सवाल पैदा हुआ कि वो ईश्वर और खुदा कितना निर्दयी हैं जिसने ये दुनियां बनाई । लोगों में अमीरी और गरीबी खाई पाट कर एक वर्ग या समुदाय के लिए संसार के सारे दुखों के साथ अकेला छोड़ दिया । भगत सिंह किसान परिवार से थे वो किसानों की तकलीफों से भली भांति परिचित थे इसलिए वो कहते थे कि शासन के तख्त पर कौन बैठा हैं इससे किसी भी मजदूर या किसान को कोई फर्क नहीं पड़ने वाला ।
भगत सिंह अक्सर पूंजीवादी के खिलाफ़ लिखते थे उनके लेख पंजाबी और उर्दू में स्थानीय अखबारों में भी छपते थे ।
उन्होंने एक लेख में लिखा हैं “लोगों को आपस में लड़ने से रोकना हैं तो इन्हें अमीर गरीब का अहसास दिलाना है , गरीब मजदूरों और किसानों को ये समझना होगा कि उनके असली दुश्मन पूंजीवादी हैं " ।
भगत सिंह सिंह के लिए किताबें पढ़ने का बहुत शौक था उन्होंने जेल में लगभग तीन सौ किताबें पढ़ी उससे पहले विद्यालय और अन्य फुर्सत के पलों में लगभग ढाई सौ किताबें पढ़ी । वो रूस की क्रांति से अधिक प्रभावित थे ।
भगत सिंह चाहते थे कि देश से जाति प्रथा का अंत हो, वो अछूत भेदभाव ऊंच नीच जैसी महामारियों को जड़ से ख़त्म करना चाहते थे । भगत सिंह अपनी तार्किक बुद्धि और विशाल अध्ययन के बल पर हर समुदाय के व्यक्तियों को सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक समानता समाज की रचना के लिए प्रतिबद्ध थे ।
उन्होंने धर्म में फैली धार्मिक अंधता पर भी तीखा बार किया , उन्होंने एक लेख में लिखा हैं कि “हम भारतीय क्या कर रहे हैं ? पीपल की टहनी कट जाती हैं और हिंदुओं की धार्मिक भावना आहत हो जाती हैं । कागज़ की मूर्ति, ताजिया एक कोना टूट जाता हैं और अल्लाह को गुस्सा आ जाता हैं इंसान की जानवरों से अधिक अहमियत होनी चाहिए और फिर भी यहां भारत में वे पवित्र जानवरों के नाम पर एक दूसरे के सिर फोड़ देते हैं “ ।
भगत सिंह देश में वैचारिक क्रांति लाना चाहते थे वो चाहते थे शासन में धर्म का हस्तक्षेप नहीं होना चाहिए । उन्होंने अपने लेख “मैं नास्तिक क्यों हूं” में लिखा हैं “उन्नति के लिए किसी भी मनुष्य को अंधविश्वास की आलोचना करनी होगी ,और पुराणपंथी विचारों को चुनौती देनी होगी । तमाम प्रचलित प्रथाओं और विश्वासों को गहराई से परखना होगा” ।
आज देश आज़ाद हुए भले ही पछत्तर साल हो गए मगर आज भी भारत में अधिकांश वर्ग भूख, बेरोजगारी जैसी बेड़ियों में जकड़ा हुआ हैं । ये सपना भगत सिंह ने आज से लगभग नब्बे वर्ष पूर्व देखा था कि एक हम आज़ाद होंगे और समाज के सभी वर्ग के व्यक्तियों को एक जैसा जीवन यापन करने का मौका मिलेगा ।
वो लिखते हैं “ दुनियां के सभी लोग चाहे जिस भी जाति धर्म नस्ल या देश के हो सभी के वही अधिकार हैं । ये तुम्हारे फायदे में हैं कि धर्म, रंग,नस्ल और राष्ट्रीयता को लेकर भेदभाव बंद हो सकें और तुम्हारे सरकार की ताक़त तुम्हारे हाथों में हों ” ।
भगत सिंह जमीनी स्तर की हकीकत से रूबरू थे वो जानते थे आज़ादी मिलने के पश्चात भी निचले स्तर पर जीवन यापन कर लोगों के जीवन में कोई खास सुधार नहीं होगा । वो हमेशा बाबा बंदा बहादुर सिंह की पक्तियों को दोहराते थे “सुरा सो पहचानिए जो लड़ें दीन के हेत, पुर्जा पुर्जा कट मरे ,कभूं ना छड़े खेत” किसानों से कहते थे कि हम अपनी गर्दन कटवा लेंगे मगर कभी झुकेंगे नहीं । भगत सिंह बचपन से ही अंग्रेजों के अत्यधिक घृणा करते थे उसका कारण उनके पिताजी और चाचाजी थे जो स्वाधीनता की लड़ाई में जेल गए और असहनीय पीड़ा भी मोल ली । इसके अलावा एक और कारण है जब वो बारह वर्ष के तब जलियां वाला हत्याकांड हुआ था उसने भगत सिंह के मन को प्रभावित किया । जिससे उनके मन में घृणा का भाव पैदा हो गया था । उन्होंने अदालत में कहा था कि “बम और पिस्तौल से क्रांति नहीं आती , क्रांति की तलवार विचारों की शान पर तेज होती हैं” ।
आज की युवा पीढ़ी भगत सिंह के नाम पर बड़ी बड़ी बातें करते हैं , उनकी फ़ोटो को अपनी गाड़ी मोटर के आगे पीछे लगाकर घूमते हैं, सोशल मीडिया अकाउंट पर प्रोफाइल पिक्चर बनाते हैं , ऐसे लोग भगत सिंह को आदर्श मानते हैं मगर वो भगत सिंह के बारे में उनके विचारों के बारे में नहीं जानते हैं । ऐसे लोग समझते हैं खून मात्र बहाने से ही आज़ादी मिल जाती हैं या किसी लड़ाई पर जीत हासिल की जा सकती हैं मगर ऐसा कुछ भी नहीं है ।
ये बालक 1907 को जन्म लेता हैं और 1931 को अपने प्राण न्यौछावर कर देता हैं । जब भगत सिंह मौत को गले लगाने जा रहे थे तब उनके चेहरे पर एक अजीब सी मुस्कान थी और लवों पर ये शब्द थे “दिल से निकलेगी न मर कर भी वतन की उल्फत, मेरी मिट्टी से भी खुशबु-ए-वतन आएगी" ।
मात्र तेईस वर्ष की अल्पायु में ही वो कार्य कर दिए जो दुनियां में मिशाल के तौर पर कायम हैं । वो ऊंच नीच,छुआ छूत जैसी कुप्रथाओं का अंत करना चाहते थे उसी जुड़ा एक वाकया काफ़ी प्रसिद्ध हैं जब भगत सिंह की फांसी का वक्त समीप आ गया था तब उन्होंने अपनी बेबे से कहा था कि वो उन्हें अपने हाथों से खाना खिलाएं । बेबे वो थी जो सेल की सफ़ाई करती थी , और ये वो दौर था जब कुप्रथाएं अपने चरम पर थी, कोई भी उच्च वर्ग का व्यक्ति किसी निचली जाति के व्यक्ति के हाथों से खाना या पानी लेना पसंद नहीं करता हैं । भगत सिंह समानता के प्रबल समर्थक थे । वो अपनी वैचारिक क्रांति से जन जन को जागरूक करना चाहते थे और सर्व साधरण के लिए समानता का दर्जा दिलाना चाहते थे ।
हमें आज़ादी मिले साथ आठ दशक पूर्ण होने को हैं । मगर आज भी हम भगत सिंह को विचारों पर अमल नहीं कर रहे हैं ना उनके बताएं मार्ग पर चल रहे हैं। हमें जबसे आज़ादी मिली हैं तब से हम उन वीरों की शहादत को भूलते जा रहे हैं ।
आज भगत सिंह की 115वीं जन्म जयंती हैं हमें उनके जन्म सार्थक बनाना हैं और उनके सपनों का भारत बनाना हैं ।
अंततः यही कहूंगा कि भगत सिंह का अर्थ गोली बारूद या खूनी क्रांति से नहीं हैं । वो समाज में अपनी वैचारिक क्रांति समानता लाना चाहते थे, वो कहते थे कि “वे मुझे मार सकते हैं लेकिन मेरे विचारों को नहीं” । उन्होंने पराधीनता समाप्त करने के लिए आजीवन संघर्ष किया ।
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