आओ मेरे गांव कभी...
तुम्हें अपने आप से मिलवाता हूं..!!!
आओ मेरे गांव कभी...
तुम्हें अपने आप से मिलवाता हूं,
कोयल की प्यारी सी कूक सुनवाता हूं।
गुलमोहर के वृक्ष पर छाए
फूलों की खूबसू में लेकर
महुआ के फूलों की मिठाई खिलवाता हैं।
रक्खोंगे कदम जैसे ही मेरे गांव में
तुम्हें मिट्टी की महक मोहित कर देगी।
गुजरना मेरे गांव की गलियों से
तुम्हें बच्चों की किलकारियां सुनवता हूं।
आओ मेरे गांव कभी...
तुम्हें अपने आप से मिलवाता हूं।।
चटकती कलियों से लेकर
मंदिर के घंटे की आवाज़ सुनवाता हूं।
यहां घूंघट और दुपट्टा में रहती हैं
हमारी इज्ज़त...!!
आओ तुम्हें इज्ज़त का सलीका सिखलाता हूं।
बड़ों का आदर छोटो का सम्मान
अपनी आंखों से देखना,
यहां छोटे बड़े एक साथ
बैठकर खाना खाते हैं।
गांव के मसले गांव में ही
निपटते हैं,
आओ तुम्हें अपनी पंचायत
का पंच बनाता हूं।
आओ मेरे गांव कभी...
तुम्हें अपने आप से मिलवाता हूं।।
बस कुछ कमियां हैं मेरे गांव में
यहां शिक्षा पर कम जोर दिया जाता हैं
कच्ची उम्र में ही बच्चों को
काम पर लगा दिया जाता हैं।
मेरे गांव में जात पात ऊंच नीच
छुआ छूत मानते हैं लोग।
मंदिर में बंट जाते हैं
मधुशाला में एक हो जाते हैं लोग।।
नादान है वो क्योंकि शिक्षा का अभाव हैं,
मगर हर दिल में मुहब्बत और चाव हैं।
तुम साथ दो मेरा
मैं इस भेदभाव को मिटवाता हूं।
आओ मेरे गांव कभी...
तुम्हें अपने आप से मिलवाता हूं।।
Write ✍🏻 - Vinay Kumar Jha
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