(1)
माशाल्लाह,
तेरा हुस्न किसी हूर से कम नहीं।
लफ्जों में कैसे लिखूं,
लफ्जों में इतना दम नहीं।।
तू सर से पांव तक,
कयामत लगती हैं।।
मौजूद जहां खुदा,
वहां तू, मगर हम नहीं।।
तू अपनी शोख अदाओं से
हमें दीवाना बनाती हैं।।
कजरारी आंखों से
पल में घायल कर जाती हैं।।
तुझे देखा तो जी भरा नहीं,
तेरा दीदार अब भी बाकी हैं।
मदहोश होना है तेरे इश्क़ में
पर तू किसी और का साकी हैं।।
(2)
मैं अपनी रुह में शामिल कर लूं उन्हें,
मगर वो मुझसे एकांत मांगते हैं…!!
फलक से सारे सितारे तोड़ लाऊं,
मगर वो जमीं पे आसमान मांगते हैं।।
मैं सजा दूं उनके कदमों में पाक जन्नत
वो कहां खुदा से मन्नत मांगते हैं।।
मैं चाहता हूं उन्हें दिल ओ जान से
मगर वो कहां दुआओं में मांगते हैं।।
Poem - Vinay Kumar Jha
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