बुंदेलखंड इतिहास एवम् नामकरण
बुन्देलखंड, जैसा कि नाम से स्पष्ठ है बुन्देलों का निवास स्थान, या बुंदेलों की भूमि। यह भूमि ऐतिहासिक दृष्टि से भी अत्यंत महत्वपूर्ण रही हैं। आइए एक नज़र बुंदेलखंड के इतिहास पर डालते हैं…
शताब्दियों पहले से बुंदेलखंड अनेक राजा और महाराजाओं के अधीन रहा। तत्कालीन राजाओं ने अपने नाम या वंश के आधार पर बुंदेलखंड का नामकरण किया। हमें इतिहास में देखने को मिलता हैं कि पुरातन काल में बुंदेलखंड को अनेक नामों से पुकारा जाता था। जैसे जैसे शासन परिवर्तित होता गया वैसे वैसे बुंदेलखंड के नामों में परिवर्तन होता गया। पौराणिक काल में बुंदेलखंड को ‘चेदि’ नाम से वर्णित किया गया हैं। इसके अलावा दस नदियां होने के कारण इसे ‘दशार्ण’ तो विध्यांचल पर्वत की श्रेणियों में होने के कारण इसे ‘विंध्यभूमि’ के नाम से भी संबोधित किया गया हैं। चंदेल वंशीय राजाओं के शासन के दौरान बुंदेलखंड को ‘जुझौति’ के नाम से भी जाना जाता था।
हालांकि बुंदेलखंड का नाम बुंदेलखंड पड़ने के पीछे एक वाक्या प्रसिद्ध हैं। बुंदेल क्षत्रीय जाति के शासक थे तथा सुदूर अतीत में सूर्यवंशी राजा मनु से संबन्धित हैं, गहरवार शासक हेमकरन ने जब विंध्यवासिनी देवी की आराधना की तब हेमकरन ने देवी को पांच नरबलियां दीं तभी उसका नाम ‘पंचम सिंह’ पड़ा। बाद में विंध्यवासिनी देवी की भक्ति में लीन होकर उसने अपने नाम के बाद ‘विन्ध्येला’ शब्द जोड़ लिया। कालांतर में यही विंध्येला शब्द ‘बुन्देला’ के रूप में परिवर्तित हो गया और जिस क्षेत्र में पंचम सिंह बुन्देला या उनके वंशजों ने राज्य विस्तार किया वह ‘बुन्देलखण्ड’ कहलाया।¹
¹https://www.bundelkhandnews.com/How-was-Bundelkhand-named#google_vignette
बुंदेलखंड राज्य
बुंदेलखंड प्राकृतिक एवं ऐतिहासिक दृष्टि से संपन्न हैं मगर आर्थिक रूप से गंभीर पिछड़ा हुआ है, उत्तर प्रदेश के बांदा, चित्रकूट, हमीरपुर, झांसी, जालौन, ललितपुर और महोबा जिलों को बुंदेलखंड में गिना जाता है। यह क्षेत्र भारत के सर्वाधिक पिछड़े इलाकों में से एक है। काफी अरसे से बुंदेलखंड को पृथक राज्य बनाए जाने की मांग उठाई जाती रही है। मगर इस मांग का अभी तक कोई प्रभाव नहीं पड़ा। हालांकि यह मुद्दा बुंदेलखंड के विकास की दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। रोजगार के साधनों के अभाव तथा कृषि पर अत्यधिक निर्भरता के कारण यहां के लोग पलायन को मजबूर हैं। यहां औसतन एक लाख की आबादी पर एक फैक्टरी है। कृषि उत्पादकता भी अन्य राज्यों की अपेक्षा यहां कम है जबकि निर्भरता अधिक हैं। एक सर्वे के अनुसार विवाह, बीमारी और बंटवारा यह तीन कारक गरीबी के लिए जिम्मेदार हैं।²
²https://hindi.indiawaterportal.org/articles/baundaelakhanda-vaikaasa-sae-kaosaon-dauura
अगर बुंदेलखंड राज्य की मांग के इतिहास में जाएं तो यह करीब 67 वर्ष पुरानी मांग है, क्योंकि 31 अक्टूबर 1956 से पहले बुंदेलखंड राज्य का अस्तित्व हुआ करता था. बुंदेलखंड निर्माण मोर्चा के अध्यक्ष भानु सहाय द वायर से बातचीत में कहते हैं, ‘भारत की आजादी के बाद विलय प्रक्रिया के तहत बुंदेलखंड की 33 रियासतों के साथ भारत सरकार ने एक लिखित संधि की थी कि भाषाई आधार पर हमारा अलग राज्य होगा, जिसके तहत 12 मार्च 1948 को बुंदेलखंड राज्य अस्तित्व में आया. पहले मुख्यमंत्री कामता प्रसाद सक्सेना बने और राजधानी नौगांव को बनाया गया.’ लेकिन 31 अक्टूबर 1956 को राज्य पुनर्गठन आयोग की सिफारिश पर बुंदेलखंड राज्य को समाप्त करके उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के बीच विभाजित कर दिया गया.
जो कि अब बुंदेलखंड का पुनर्गठन होना नामुमकिन सा प्रतीत होता हैं। यदि केंद्र सरकार चाहे तो आसानी से बुंदेलखंड राज्य बन सकता है। क्योंकि इस वक्त उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और केंद्र में भाजपा की सरकार है।³
³https://thewirehindi.com/205946/why-the-demand-of-separate-bundelkhand-state-is-not-an-election-issue/
अविकसित बुंदेलखंड
बुंदेलखंड में मई और जून के महीने में अत्यधिक गर्मी पड़ती हैं, जो बुंदेलखंड वासियों के लिए अभिशाप जैसा हैं। इन दिनों गांव से लेकर शहरों तक सूखा पड़ जाती हैं। पानी का अभाव जानवर तो दूर यहां की आम जनता को अछूता रखता हैं। अभी साल के आख़िरी माह से पानी की कमी का अहसास होना आरंभ हो जाता हैं। इन दिनों ललितपुर में गेंहू की बुआई प्रारंभ हो जाती हैं। बता दें कि बुंदेलखंड की भूमि उपजाऊ ना होने की वजह से यहां अधिकतर गेहूं की खेती पर ही जोर दिया जाता हैं। हालांकि गेंहू एक ऐसी फ़सल हैं जिसे सर्वाधिक पानी की आवश्यकता होती हैं। इसके अलावा हमारे ललितपुर ग्रामीण क्षेत्रों में मटर, चना, सरसों, मसूर इत्यादि की खेती भी जाती हैं। जो फसल फ़रवरी से मार्च के महीने तक पककर तैयार हो जाती हैं। मगर यहां भी किसानों को नुकसान ही झेलना पड़ता हैं, उसकी वजह है ठंड के मौसम में पड़ने वाला कोहरा। कोहरा, हमारी फसलों पर संकट बनकर आता हैं। जो फसलों पर फफूंद (तुसार) बनकर चढ़ जाता हैं, जिससे अधिकांश फसलें नष्ट हो जाती हैं। पिछले साल इन्हीं दिनों की बात हैं जब मैं अपनी मौसी के गांव में था, मैंने वहां ग्रामीणों न से फ़सल के बारे में जानकारी ली।
ललितपुर से तीस किलोमीटर दूर बानौनी गांव के 40 वर्षीय रामसहाय विश्वकर्मा पेशे से एक किसान हैं। जिनका पारंपरिक कार्य बढ़ई का, ठप हो जाने से वो साल के आठ माह इंदौर किसी निजी कंपनी में कार्य करते हैं। रामसहाय इन दिनों अपने गांव बापिस आ जाते हैं ताकि वो खेती कर सकें। वो कहते हैं कि पिछली बार की तरह इस बार भी अच्छी फसल के आसार नहीं दिख रहे हैं। क्योंकि सिंचाई के लिए उन्हें नज़दीक ही बहती जामनी नदी के सहारे रहना पड़ता हैं। जो बुंदेलखंड के सागर जिले से निकलकर ओरछा के समीप बेतवा नदी में मिल जाती हैं। जामनी नदी में इन दिनों जल स्तर घटने लगता हैं। वो आगे कहते हैं कि जो लोग आर्थिक रूप से संपन्न हैं वो बोरबेल या नदी में पंप चलाकर अपनी पूर्ति कर लेते हैं क्योंकि उनके पास सिंचाई और बिजली के पर्याप्त साधन उपलब्ध रहते हैं। रामसहाय प्रत्येक वर्ष पानी की की समस्या से जूझते हैं। जब उनसे पूछा कि आपके यहां स्थानीय नेता इस समस्या को लेकर क्या सोचते हैं। उन्होंने बताया कि यहां पर नेता सिर्फ़ चुनाव के समय आते हैं बड़ी बड़ी बातें करते हैं फिर गायब हो जाते हैं। ऐसा नहीं हैं कि हमारे क्षेत्र के विकास के लिए कोई योजना ना आई हो, बहुत योजनाएं आती हैं मगर हम लोगों तक पहुंचते पहुंचते पहुंचते जैसे नदी का पानी सूख जाता हैं वैसे ही योजनाएं सूख जाती हैं। रामसहाय विश्वकर्मा के गांव से लगभग दस किलोमीटर दूर कल्याणपुरा गांव के धर्मवीर गौतम कहते हैं कि थी। बांध के निर्माण से हमारे आसपास के कुछ गांव विस्थापित किए गए। जिन्हें पुनर्निवास स्थल में आवासीय ज़मीन उपलब्ध करवाकर बसाने की योजना थी। मगर वो योजनाएं दफ्तरों में धूल खा रही हैं। हालांकि कुछ ग्रामीणों के लिए आवासीय ज़मीन आवंटित की गई हैं। उन्हें मकान बनाने के लिए 6 लाख रुपए भी मुआवजे के तौर पर दिए गए हैं। इसमें भी बड़े घोटाले के आसार देखने को मिलते हैं। सरकार की ओर से जो व्यक्ति 2017 तक बालिग हो चुके हैं उन्हें भी आवासीय व्यवस्था से जोड़ा गया हैं। इसमें नाबालिक के लिए भी बालिग के तौर पर दर्शाकर योजना का लाभ कुछ संपन्न परिवारों ने उठाया है। धर्मवीर आगे बताते हैं कि बांध निर्माण के लिए जो जमीन उपलब्ध कराई गई उन जमीन के मुआवजे को लेकर खूब धांधली हुई। एक एकड़ जमीन पर 30 हज़ार रुपए से लेकर 30 लाख रुपए तक का मुआवजा दिया गया। इसके अलावा जिनकी ज़मीन बांध के डूब क्षेत्र से दूर थी उन्होंने अपने रसूख के दम पर बांध के क्षेत्र को फाइलों में बढ़वा लिया उस ज़मीन पर मुआवजा राशि भी प्राप्त कर और अब उसी ज़मीन को खुलकर जोत रहें हैं और बांध के पानी का भरपूर लाभ उठा रहे हैं। मगर इस तरह की योजनाओं से गरीब वर्ग जो अशिक्षित हैं वह पूरी तरह अछूता हैं।
ललितपुर जिले में पानी की कमी को पूरा करने के लिए बुंदेलखंड विकास प्राधिकरण द्वारा कई योजनाओं का विस्तार किया गया जिसके अंतर्गत बांधो का निर्माण किया गया। ललितपुर का प्रसिद्ध बांध गोविंद सागर बांध इसका निर्माण वर्ष 1952 में हुआ था। बांध का उद्घाटन उत्तर प्रदेश के प्रथम मुख्यमंत्री गोविंद बल्लभ पंथ ने किया था, इसलिए बांध का नाम उन्हीं के नाम पर गोविंद सागर रखा गया । ये बात अलग है कि यह बांध अपनी स्वचलित साइफल प्रणाली से भारत देश में अपनी पहचान बनाए हुए है। ललितपुर जिले में इस समय बांधो की संख्या लगभग 13 हैं। कुछ बांधो के नाम इस प्रकार हैं माताटीला बांध, राजघाट बांध, गोविंद सागर बांध, जामनी बांध, सजनाम बांध, जमरार बांध, बनडई बांध, भोरट बांध, उटारी बांध ,भावनी बाँध, रोहिनी बांध, कचनौदा बांध इत्यादि। बांधो की इतनी अधिक होने के बावजूद पानी की कमी हमेशा बनी रहती हैं।
सरकार दावा करती है कि बुंदेलखंड अपनी भौगोलिक स्थिति के चलते विकास से अछूता हैं। वहीं दूसरी ओर कुछ विशेषज्ञों एवं स्थानीय लोगों का मानना हैं कि है कि पिछले कुछ सालों में प्राकृतिक जलस्रोतों को नष्ट किया गया हैं, इसके अलावा प्रकृति विरोधी विकास और अवैध खनन एवं पहाड़ों को काटने इत्यादि के चलते बुंदेलखंड का ये हाल हैं. बुंदेलखंड के विकास के क्रम में बुंदेलखंड पैकेज के अंतर्गत अनाज मंडियों का विस्तार किया गया जो आज खंडहर हो रही हैं। उनमें ना कोई खरीददार हैं, ना कोई किसान। इन मंडियों का उद्देश्य यह था कि किसान को अपना अनाज बेचने के लिए कहीं दूर शहर ना जाना पड़े।
किसानों के अलावा एक नज़र हम उन मजदूरों पर डालते हैं जो या तो प्रवासी हैं या मनरेगा योजना में शामिल हैं। मनरेगा में होने वाले भ्रष्टाचार पर डालते हैं। मनरेगा योजना के विषय में जानकारी जुटाने के लिए ललितपुर से 50 किलोमीटर दूर गांव कुम्हेड़ी के निवासी ललई कुशवाहा से बात करते हैं। ललई कहते हैं मनरेगा योजना में काम रहे तब भी नहीं मिलता। इसका प्रमुख कारण हैं ग्राम प्रधान के विपक्ष में होना। प्रधान अपने पक्ष के लोगों को काम उपलब्ध करवाते हैं। इसके अलावा जॉब कार्ड ऐसे लोगों के भी बनाए जाते हैं जो कभी खदान पर काम करने तो दूर देखने भी नहीं जाते। मगर उनके खातों में रुपए बिना किसी रुकावट के आते हैं। ये सब ग्राम प्रधान की मिलीभगत से संभव होता हैं।
ललितपुर के प्रवासी मजदूरों की तुलना उत्तर प्रदेश अन्य राज्यों से कहीं अधिक हैं। इसका प्रमुख कारण हैं ज़िले में औद्योगिक विकास का ना होना। जिले में एक भी बड़ी कंपनी या फैक्ट्री नहीं हैं। बुंदेलखंड की स्तिथि से वाकिफ कोई भी उद्योगपति इस क्षेत्र में निवेश करना नहीं चाहता। सरकार भी यहां रोजगार के साधन उपलब्ध नहीं करवाती हैं। आज़ादी से लेकर अब तक कितनी ही सरकारें आई और चली गई मगर किसी ने बुंदेलखंड की ओर पलट कर नहीं देखा। जिसका प्रमुख कारण हैं यहां की भूमि, यदि सरकारें इस क्षेत्र में निवेश के अवसर तलाशती और निवेश करती तो अब तक बुंदेलखंड गरीबी रेखा से कुछ हद तक उभर सकता हैं। शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में भी क्रांति आ सकती थी। मगर ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। जितने भी जन प्रतिनिधि हुए उन्होंने बुंदेलखंड विकास के नाम पर आंदोलन किए, राजनीतिक दल बनाए मगर जैसे ही किसी बड़ी पार्टी की टिकट मिली तो अपना पेट भर कर चुप हो गए। इसका जवलंत उदाहरण मौजूदा भाजपा सांसद अनुराग शर्मा हैं।
बुंदेलखंड के विकास में आढ़े आने वाली वजह यहां की रूठीवाड़ी विचाधारा भी हैं। जैसे यदि कोई दलित समाज का एक आदमी आलू उगाए और उसे अपने ही गांव में बेचे, तो उसका आलू कोई नहीं खरीदेगा। कुछ इस तरह छुआछूत हावी हैं। जो विकास का रोड़ा बना हुआ हैं।
बुंदेलखंड के विकास को लेकर बड़े बड़े राजनेता खूब आवाज़ उठाते हैं, मगर वो तब तक उठाते हैं जब तक विपक्ष में होते हैं। उमा भारती मेरे गांव में दो बार आई। हमें वो सपने तक दिखाएं जो कभी हमने सोचे भी ना थे। मगर चुनाव जीतने के बाद लोग उनका चेहरा देखने के लिए तरस गए थे।
एक नज़र शिक्षा पर भी डालते हैं किस तरह हमारी शिक्षा प्रभावित होती हैं। हमारे यहां अधिकतर निरक्षर मिलेंगे। क्योंकि जिम्मेदार व्यक्ति कभी अपनी जिम्मेदारियों को नहीं समझता हैं, लाभ कमाने के चक्कर में हमारा भविष्य अंधकार में धकेल देता हैं। मैंने शिक्षा की बात को लेकर स्थानीय पत्रकार किशनलाल से बात की उन्होंने अपने गांव का एक किस्सा सुनाया। उन्होंने कहा कि ‘हमारे गांव में शिक्षा के लिए पर्याप्त साधन उपलब्ध नहीं थे। शिक्षार्थी पढ़ने के लिए दूर दराज क्षेत्रों में जाया करते थे। मगर एक शिक्षाविद जिन्होंने शिक्षा को अपनी जिम्मेदारी समझते हुए गांव में बारहवीं कक्षा तक का विद्यालय स्थापित करने की कोशिश की। वो शिक्षाविद अपनी योजना में सफ़ल हुए उन्होंने शिक्षा की तमाम नैतिकताओं को ध्यान में रखते हुए अपने शिक्षण कार्य को जारी रखा। विद्यालय को फलता फूलता देख कुछ लालची लोगों ने उसे व्यापार बनाने की कोशिश की मगर उस शिक्षाविद ने इंकार कर दिया। तब इन लालची लोगों ने उस विद्यालय को बंद करवा दिया और अपना खुद का एक निजी विद्यालय स्थापित किया। जिनका उद्देश्य लाभ मात्र कमाना था। जिन्होंने बच्चों को शिक्षा से वंचित रखा’। यह किस्सा किसी एक गांव मात्र का नहीं हैं बल्कि कई जगहों पर शिक्षा को व्यापार के तौर पर प्रयोग में लाया जा रहा हैं।
ललितपुर जिले की शिक्षा के बाद स्वास्थ्य व्यवस्थाओं पर भी एक नज़र डालते हैं। स्वास्थ्य सेवाओं का स्तर इतना गिर हैं कि ग्रामीणों को कर्ज़ लेकर प्राइवेट अस्पतालों में इलाज़ करवाना पड़ता हैं। सरकारी अस्पतालों में डॉक्टरों के दलाल बने हुए रहते हैं जो अक्सर बाहरी दवाओं के प्रेरित करते हैं। डॉक्टर कहते हैं कि यदि जल्द स्वास्थ्य होना है तो यह दवाएं फलानी मेडिकल से लेकर आओ। कुछ डॉक्टर मेडिकल का नाम नहीं बताते मगर किसी गुप्त व्यवस्था के जरिए वो एक दूसरे से जुड़े रहते हैं। महरौनी के स्वास्थ केंद्र में मेरे मित्र ने हाइड्रोशिल का ऑपरेशन करवाया, डॉक्टर ने सारी दवाई बाहर से मंगवाई। स्वास्थ्य व्यवस्था का ये हाल है। स्वास्थ केंद्र में ना ही पर्याप्त डॉक्टर हैं ना दवाएं ना आधुनिक उपकरण। भवन भी पुराने हो चुके हैं, दरारें आ गई। मगर ये आधारभूत सुविधाएं किसी का ध्यान आकर्षण नहीं कर पाती।
बुंदेलखंड विकास से अछूता हैं इसके कई कारण हैं। किसी एक कारण को जिम्मेवार ठहराना उचित नहीं होगा। ग्रामीण क्षेत्र आज भी वैसे ही हैं जैसे आज़ादी के पूर्व हुआ करते थे। बिजली,पानी, सड़क जैसी मूलभूत सुविधाओं का अभाव हैं। शिक्षा, स्वास्थ, और रोजगार की बात करना अब अपराध जैसा प्रतीत होता हैं। किसान प्रतिवर्ष सूखा और कर्ज़ के कारण हजारों की संख्या में खुदखुशी करते हैं। छात्र सालों साल मेहनत करते हैं मगर जब भर्ती के नाम पर काला बाजारी होती हैं तब उनके दिल टूट जाते हैं। कुछ अपना भाग्य समझकर चुपचाप मजदूरी करने लगते हैं तो कुछ मौत के साए में लिपट कर सो जाते हैं।
बुंदेलखंड की भूमि ने रानी लक्ष्मी बाई, झलकारी बाई , महाराजा छत्रसाल, राजा मर्दन सिंह, राष्ट्रकवि मैथिली शरण गुप्त जैसी कई विभूतियों को जन्म दिया। यह किन्हीं की जन्म भूमि तो किन्हीं की कर्म भूमि रही हैं। भारतीय इतिहास के कुछ पन्ने बुंदेलखंड की स्याही से भी लिखे गए हैं। बुंदेलखंड में ऐतिहासिक विरासतों का खज़ाना हैं। यहां जो भी आता हैं उसके जिक्र में यहां कहानियां होती हैं। देश विदेश में बुंदेलखंड की पहचान स्थापित करने वाली रानी की नगरी उनके जाने के बाद से अब वीरान सी हैं।
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