भूख लगी थी मुझको , मैंने भोजन मांगा था ।

मैने भोजन मांगा था । 
उस अमीर शहजादे ने 
 कुत्ता कह के दुत्कारा था । 
 बचा हुआ खाना उसने 
 कचड़े में गिराया था ।। 
 भूख लगी थी मुझको 
 मैने वो खाना उठाया था । 
 छोटी सी बच्ची थी मेरी 
 उसने पापा कहकर बुलाया था 
 भूख लगी है मुझे भी पापा 
 मैने वो खाना उसे खिलाया था ।। 
 मजदूरी करता था में पहले 
 मैने भी घर का बोझ उठाया था । 
 बच्चों को पढ़ाने का देख सपना 
 मैं परदेश कमाने आया था ।। 
 प्रसव पीड़ा थी इतनी उसकी 
 मैंने पत्नी को गवायां था ।। 
 बिन मां के बच्चों को लेकर 
 मैं परदेश कमाने आया था ।। 
 हर दुख से लड़ सकता था मैं
 मुझे गरीबी ने हराया था ।। 
 इसे समझ कर अपनी किस्मत 
 मैने हर दर्द और गम उठाया था । 
 मैं अनपढ़ गवार देहाती 
 मासूम सा और बेचारा था । 
 इसीलिए बारी बारी से सबने 
 मेरा फायदा उठाया था ।। 
 बेटी की आंखों के देख सपने 
 दिन और रात का चैन गवायां था । 
 लड़ झगड़ कर में जिंदगी से 
 कुछ खुशियां छीनकर कर लाया था 
 देख हंसता हुआ हमें उसने 
फिर ऐसा चक्र चलाया था । 
 मजदूरी करते हुए मैने 
 अपना एक पैर गवाया था ।। 
 उजाड़ कर रख दी मेरी दुनिया 
 उसने फिर से मुझे रुलाया था । 
 में दर दर भटकने को मजबूर हुआ 
 मुझे इतना मजबूर बनाया था । 
 छोटी सी बच्ची को लेकर 
 फिर सड़को पर आया था ।। 
 मेरी बच्ची भूखी थी साहब 
 मैने भोजन मंगाया था ।। 
 हां मुझे भूख लगी थी ।। 
 मैने कचड़े से भोजन उठाया था ।। 
 तभी उस अमीर शहजादे ने 
मुझे कुत्ता कह के दुत्कारा था ।



  कविताविनय कुमार झा

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