पवित्र अपवित्र : कविता — विनय कुमार झा

 पवित्र और अपवित्र 







आज मेरी ठन गई उससे , 
वो पवित्र अपवित्र पर अड़ा रहा ।
छीटें डाले वो मंदिर के अंदर चला गया ,
नहा कर आया था मैं बाहर खड़ा रहा ।।

मैंने पूछा ये पवित्र क्या होता हैं । 
और मै हमेशा अपवित्र क्यों रहता हूं । 
बोला ब्राम्हण हूं जन्म से पवित्र हूं ,
कुछ भी कर लूं फिर भी पवित्र रहता हूं ।। 

इतना मतभेद क्यों हैं मुझसे 
मैं भी तो पवित्र हूं ।  
तुम्हें मां ने जन्म दिया 
मुझे मां ने जन्म दिया ,
फिर मैं क्यों इतना अपवित्र हूं । 

बोला तुम्हारी जाति मास मदिरा भक्षी है 
इसलिए तुम अपवित्र हो ईश्वर साक्षी हैं । 
मैंने कहा जिस पर मां सवार हैं 
क्या वो शेर साकाहार हैं । । 
वो क्षत्रिय पवित्र हैं क्यों 
वो भी तो मांसाहार हैं ।। 
हम इतने अपवित्र कैसे हुए 
क्या हम गरीब और लाचार हैं ।। 

सदियों से तुम्हारी गुलामी की हमनें , 
क्योंकि शिक्षा से वंचित रखा तुमने ।। 
उसी मांस का बदन हमारा 
जिस मांस को तुम ओढ़े हो ।।
तुमने बनाएं रिवाज़ हमने संवारे 
वक्त वक्त पर तुम्हीं उनको तोड़े हों । 

हम गुलाम थे पढ़ लिख भी गुलाम बने रहें 
अनपढ़ ब्राम्हण तुम्हारे समाज में पूजनीय बने रहें ।
तुम्हारे बगैर घर में कोई काज नहीं हुआ । 
हम तब भी नीच के नीच ही बने रहें ।। 


अब वक्त बदलाव का हैं हमें बदलाव लाना होगा । 
पवित्र अपवित्र की रीत छोड़कर सबको इंसान बनाना होगा ।
जात पात ऊंच नीच भेदभाव सब त्यागना होगा ।।
अब शुद्र को हमें ब्राह्मण का दर्जा दिलाना होगा । । 


कविता – विनय कुमार झा 

( नोट – पक्ष और विपक्ष काल्पनिक है , हमारा उद्देश्य किसी की भावना को ठेस पहुंचाना नहीं है , बल्कि समाज को जागरूक करना है )

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