500 रुपए लेकर चल पड़ा सेना में भर्ती होने के लिए
पांव में चप्पल और कंधों पर जिम्मेदारियों का बोझ
आंखों में सपने और दिल में उम्मीद
जब मेरे कालेज की छुट्टी हुई, तब मेरा मन कुछ विचलित सा हुआ तब मैंने इसे एक लड़कपन की कोई अदा समझकर जाने दिया। पर मुझे क्या पता था, कि ये दिन मेरी जिन्दगी का कुछ खास दिन होगा, में कालेज से घर जाने के लिए किसी साधन का इंतजार कर रहा था।
इसी समय कहीं से मेरा एक मित्र आया और उसने घर चलने के लिए कहा मैं शीघ्र तैयार हो गया और हम दोनों साथ में बाइक पर सवार होकर घर आ गये। तभी मेरे मित्र अभिषेक ने मुझे बताया कि सेना भर्ती का मेला लगा हुआ है,
तब मैंने वहीं उत्सुकता से पूछा कहा.??
तब उसने बताया कि आगरा में।
यह बात सुनते ही में कुछ क्षण के लिए सोच में डूब गया। तब उसने कहा कि भाई तैयार रहना, मैं सीधा घर की तरफ आया और रास्ते भर मैं यह सोचता रहा कि यह खबर मेरे लिए एक खुशी की है या फिर गम की..!!
वो दिन आया जब गांव के सभी योग्य लड़के सेना भर्ती मेला में जाने की तैयारी करने लगे। मैं उस दिन कुछ दुखी था। इसलिए मैं निर्णय नहीं ले सका कि क्या करूं, जबकि मेरा मन तो सिर्फ फ़ौज में जाने के ही अरमान सजाएं बैठा था। वहां उतनी दूर आगरा जाने के लिए मेरे पास किराये को पैसे भी न थे। मैं कुछ ऐसी ही सोच में डूबा था कि अभिषेक आया और आगरा चलने के लिए कहा मैंने उससे उस कि मेरे पास पैसे नहीं है।
तब उससे कहा कि चल पैसे मैं देता हूं, वह मेरे पिता के पास गया, और सारी बात बता दी। तब मेरे पिता ने मुझे 500 रुपए दिए और आगरा जाने को कहा। मैं आधे से मन के साथ तैयार हो गया, कड़कती धूप में मैंने अपना बैग उठाया और चल दिया। उस समय की वो कड़कती धूप मानो ऐसे प्रतीत हो रही थी जैसे कोई जबरजस्ती किसी कार्य को करने के लिए कह रहा हैं। तभी हमारे गांव का एक और लड़का आया जिसका नाम विशाल था, हम तीनों मिलकर आगरा के लिए चल पड़ें। अपने गांव के बस स्टैंड पहुंचे वहां से बस पकड़ी और ललितपुर के लिए निकल प्रस्थान कर गए। जैसे जैसे सूर्यास्त होता गया, वैसे वैसे सर्दी का हल्का हल्का सा खुमार चढ़ता गया। हमनें अपने शहर ललितपुर से उस मुहब्बतों के शहर में जानें के लिए अपनी बस को छोड़ दिया और सही समय पर स्टेशन पहुंच गए। वहां से हम तीनों ने जनरल बोगी वाला टिकट खरीदा और करने लग गए ट्रेन के आने का इंतजार....!!
ट्रेन को देरी से आता देख हम तीनों ने खाना खाया, वही खाना जो हम घर से बनवाकर लाए थे। फिर ट्रेन आयी और हम तीनों अदने से बालक ट्रेन में चढ़ गए। इस दिन स्टेशन पर ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे किसी वीरान जंगल में बहार आ गई हो। स्टेशन पर सिर्फ़ हमारी उम्र के नौजवान ही नज़र आ रहें थे। शायद वो लोग भी आगरा जाना चाहते थे! तभी ट्रेन में हॉर्न बजा, तो सारे लड़के झट से उसी ट्रेन में चढ़ गए। तभी विशाल ने सीट पर बैठने के लिए कहा , मैंने उसे नकारा और कहा कि मैं अभी आया इतने में ट्रेन आगे बढ़ गई। तभी चलती ट्रेन में एक लड़का उसी बोगी में बैठने के लिए आया जिसमें हम थे, वह बॉगी में चढ़ गया। भीड़ इतनी अधिक थी कि पांव रखने के लिए भी पर्याप्त जगह नहीं थी। कोई लड़का मेरे पांव पर चढ़ गया, मैंने अपने पैरों से हवाई चप्पल पहनी हुई थी, क्योंकि मेरे पास जूते नहीं थे। मेरे पांव में बहुत जोर का दर्द हुआ, मेरे पांव में एक छोटी सी चोट लगी थी जिसमें से लहू बहने लगा। मुझे यह देखकर गुस्सा तो बहुत आया, मगर कुछ कहा नहीं, क्यों कि एक तो मेरे पांव में जुटे नहीं थे दूसरा चोट भी लगी थी। इसलिए मैं चुप रहा और सीट पर जाकर बैठ गया। जब मैंने खिड़की से बाहर झांककर देखा तो बाहर एकदम शांत माहौल था। ट्रेन धीरे-धीरे आगे बढ़ रही थी, सूर्यास्त की वह लाल-लाल किरणें मेरे मन को उत्साहित कर रही थी और चिड़ियों की चहक मानो सोने पर सुहागा की तरह प्रतीत हो रही थी। इसे देख कर मैं बहुत खुश हुआ।
समय के साथ चलते धीरे-धीरे हम करीब रात 11:00 बज कर 30 मिनट पर मध्य रात्रि को हमने मोहब्बत की नगरी में अपना पहला कदम रखा। पहली बार था जब मैं अपने घर से इतनी दूर दोस्तों के साथ आया था, जैसे ही हम ट्रेन से नीचे उतरे हमने स्टेशन पर तरह-तरह के आदमी देखें। जो पूरी तरह से अपने अपने कामों में व्यस्त थे। फिल्म स्टेशन से बाहर की तरफ आए और नजर उठा कर चारों तरफ देखा चारों ओर अंधेरा छाया हुआ था। हम धीरे धीरे चल कर हाईवे पर आएं और वहां से सीधा ग्राउंड के लिए पैदल ही प्रस्थान किया जब हमने देखा कि इधर रास्तों में नौजवान लड़के अंधेरे फुटपाथ पर पड़े हैं, कुछ सो रहे हैं कुछ जाग रहे हैं मैं यह देखकर स्तब्ध रह गया। हजारों की संख्या में नौजवान लड़के सड़क के किनारे अंधेरे में पड़े थे, हम यह सब देखते देखते ग्राउंड तक पहुंच गए हमने लगभग 3 किलोमीटर की दूरी पैदल चलकर तय की। यहां हमने देखा की हर श्रेणी के ग्रुप बने हुए हैं जब हम मैदान पहुंचे तो वहां लाखों की संख्या में लड़कों को देखकर हम बहुत उत्साहित हुए। मैदान के चारों तरफ चमचमाती हुई लाइट ऐसे प्रतीत हो रही थी मानो आसमान में एक साथ कई सारे चांद निकल आए हैं। और वो रात चांद की चांदनी में नहाई हो।
हम तीनों पहले ग्रुप में जाकर बैठ गए और अपनी टिकट मिलने का इंतजार करने लगे। हम लोगों को इस ग्रुप में टिकट लगभग 3:00 बजे प्राप्त हुई। फिर टिकट लेकर हम आगे बढ़े, आगे हमने देखा कि एक सिपाही जो टिकट लेकर तर्जनी उंगली पर स्याही लगा रहा हैं, सो हमने उसको टिकट दी और तर्जनी उंगली पर स्याही का निशान लगवाया। अब हमारा कहीं भी रुकने का काम नहीं था, हम आगे बढ़ते ही जरा रहे थे, फिर हमनें अपने बैग से हाईस्कूल की जेरोक्ष निकाली उस पर अपनी फोटो चिपकाई, और निकल पड़े उस ग्राउंड की ओर जहां हमारी दौड़ संपन्न होनी थी। चलते जा रहे थे हम मगर हमारा चलना रास नहीं आया, वर्दी पहने सिपाही जगह जगह खड़े थे। इस ग्राउंड से उस ग्राउंड तक की दूरी हमें दौड़कर ही पूरी करनी थी। क्योंकि वो दौड़ा रहें हैं जो नहीं दौड़ते उन्हें डंडे से पीट रहे थे। हम दौड़कर इस ग्राउंड तक पहुंच गए वहां एक लंबी लाइन लगी हुई थीं जहां हमारी ऊंचाई का परिक्षण हो रहा था। हमारा नंबर आया हमने अपनी लंबाई का परीक्षण करवाया मैं और अभिषेक सिलेक्ट हो गए विशाल रिजेक्ट हो गया। उसकी लंबाई कम थी। अब सिर्फ़ हम दो ही बचे थे। हम दोनों अब आगे निकले और दौड़ वाले मैदान में पहुंचे। वहां हमनें देखा कि मार्कसीट पर मुहर लगाई जा रही हैं, हमनें मुहर लगवाई और अंदर गए। मैदान के अंदर हमनें पांच रुपए में एक पॉलिथीन और एक धागा खरीदा। इस पैकेट ( पॉलिथीन) के अंदर हमनें अपनी मार्कसीट रखी और धागे से उसे अपने हाथ में बांध लिया। हमारे देखते ही देखते वहां लड़को का सैलाब उमड़ गया, सब लाइन लगा रहें थे। सबको अपनी बारी का इंतजार था। हमें भी अपनी बारी का इंतजार था कि हम भी दौड़ने जायेंगे। तब हमारा मन कुछ विचलित सा हुआ, मगर हम घबराएं नहीं। हमनें पीछे देखा कि एक व्यक्ति प्लास्टिक बिन में केले लेकर बेचने आया है, हमसे रहा नहीं गया और तुरंत दौड़कर उसके पास पहुंचे तब तक उसकी आधी बिन खाली हो चुकी, भीड़ इतनी अधिक थी कि केले वाले के पास पहुंचना मुश्किल था, आसपास के लड़को को जोर का धक्का दिया और केले वाले के पास पहुंच गया, फिर तीस रुपए के छः केले खरीदे। हमनें केले खाएं शरीर में कुछ ताक़त सी महसूस सी हुई। यहां पर कुछ नजारे और भी थे जो वाकई देखने लायक़ थे, पीछे हमारे सेना के जवान खड़े हैं, किसी को प्यास तो किसी को बाथरूम सता रही है। कोई बाजू में रखें पानी के टैंकर के पीछे चला गया, किसी ने अपनी जगह ही गीली कर दी। जो घर से पानी की बोटल लाए उन्होंने बोतल भर दी। एक एक बोतल में तीन तीन लोगों का योगदान था। फिर उन लड़के ने बोतल को बाउंड्री के बाहर फेंक दी। खैर हमें ऐसी कोई दिक्कत नहीं थी।
अब हमारी बारी आती हैं दौड़ वाले मैदान में जानें के लिए, वो पचास पचास के समूह में लड़को को ले जा रहे हैं, एक समूह में हम दोनों थे। मगर अफसोफ की यहां हमारा साथ छूट गया। जवान पिछवाड़े पर लाठी बजा रहे थे, और लड़को को नियंत्रित कर रहे थे। हम दौड़कर गतव्यंग स्थान पर पहुंच गए जहां से हमारी वास्तविक दौड़ शुरू होनी हैं। यहां पर एक लाइन में लगभग साठ लड़के बैठे हुए हैं, और इस प्रकार लगभग बारह लाइन लगी है। यानी कुल मिलाकर एक शिप्ट में 700 लड़को को दौड़ाया जा रहा हैं। अभी तक तो सिर्फ़ हमें मुफ़्त का ही दौड़ाया जा रहा था। अब इस स्थान पर बैठकर ऐसा महसूस हो रहा हैं जैसे हम जंग के मैदान में खड़े हैं, 1600 मीटर दौड़ हमारा शत्रु हैं, हमें चार चक्कर मार कर इस शत्रु को चित्त करना हैं। तभी एक सेना का अधिकारी अनाउंस करता हैं, हमें दौड़ने की मुद्रा में आने के लिए कहता हैं। जैसे ही सीटी की आवाज़ हमारे कानों को छूकर गुजरती हैं, सभी लड़के ऐसे भागते हैं जैसे कमान से तीर निकलता हैं, जैसे बंदूक से गोली निकलती हैं। मानो ऐसा प्रतीत हो रहा था कि सालों से रुका बांध का पानी किसी के द्वारा दरवाज़े खोलते ही भयंकर आतंक मचाते हुए आगे बढ़ रहा हो।
मैं भी दौड़ गया, अचानक मेरी निगाह आगे पड़े लड़को पर पड़ी जो एक दूसरे के ऊपर जाकर गिर रहें हैं। जगह कम थी लड़के ज्यादा थे इसलिए एक दूसरे को धक्का देकर आगे बढ़ रहें थे, उन्हीं में से कुछ लड़के बीच में ही गिर गए थे। उनके सपने भी उनके साथ ही गिरकर टूट गए होंगे, मैं रुका नहीं ना मैंने बाजू से निकलने का सोचा सामने चट्टान की तरह ढेर हुए लड़को के ऊपर से कूदता हुआ आगे बड़ गया। पहले चक्कर में जो जोश था, उस हिसाब से मैं सबसे आगे दौड़ रहा था, मगर धीरे धीरे जोश ठंडा पड़ता गया, मैं लगातार थकता चला गया। और प्रथम स्थान से धीरे धीरे सबसे आखिरी में आ गया, मैं ठीक से दौड़ नहीं सका तीसरे ही राउंड में, मैं बाहर हो गया।
चौबीस घंटे हो चुके थे हमने पलक तक नहीं झपकी थी, बदन दर्द से टूट रहा था, भूख भी सता रही थी, पांव में ज़ख्म गहरा हो गया था, नंगे पांव दौड़ना भी कुछ हद तक महंगा पड़ा। मैं जब दौड़ में धीरे धीरे पीछे हो रहा था कहीं ना मेरे सपने भी टूट रहें थे। पूरा मैदान धूल मिट्टी से भर गया, आंखों के सामने धुंधली दुनियां नज़र आ रही थीं। मानो ऐसा लग रहा था जैसे घुड़ दौड़ हो रही हो। हालंकि में रुका नहीं दौड़ता ही जा रहा था, मगर मेरी रफ़्तार पहले से बहुत कम हो गई थी। मैंने तीसरे राउंड को आधा कर लिया था, इससे पहले कि मैं तीसरा राउंड पूरा करता, ग्राउंड के बीच में खड़े कुछ सेना के जवानों ने हमें रोक दिया। हमारे साथ कुछ और भी लड़के थे जो दौड़ नहीं पाए। 700 लड़कों के समूह से मात्र दस या बारह लड़के ही सिलेक्ट हो रहें थे। इस असफलता ने मुझे बहुत निराश किया, समझ नहीं आ रहा था कि आख़िर मेरी इस असफलता की क्या वजह हों सकती हैं। आख़िर किसे दोष दूं, अपनी नींद को, भूख को या यहां की व्यवस्था को? फिर भी मेरी असफलता के कुछ हद तक जिम्मेदार समाज, शिक्षक और मेरे परिवार वाले थे। क्योंकि शिक्षा का अभाव ही मेरी हार का कारण था, किसी भी जंग को फहत करने से पहले रणनीति तैयार की जाती हैं, जिससे हम अज्ञान थे।
संजोकर रखें हुए थे हम भी सेना में जाकर देश सेवा का सपना, अपने सपने को हम उसी मैदान में दफ़ना दिए। इस हार सदमा मुझे बहुत आहत कर गया था। मैं पूरी तरह से टूट गया था, कोई हौसला अफजाई करने वाला भी नहीं था। बल्कि मज़ाक उड़ाने वाले बहुत थे। भला क्या उम्र थी मेरी, 18 वर्ष!
ऐसा महसूस हो रहा था जैसे मैं किसी युद्ध में बुरी तरह से पराजित हो गया हूं, एक पल के लिए मैं सबकुछ भूल गया था, वहीं बिखरे पड़े थे मेरे सामने मेरे अरमान, मैंने वहीं अपने अरमानों की चिता जलाई। तब मैं होश में आया कि मेरे साथ अभिषेक भी है, मगर उसका पता नहीं वो कहां हैं? मैं उसे खोजने लगा, और खोजते खोजते सोच रहा हूं कि वो पक्का दौड़ में निकल गया होगा, उधर वो सोच रहा था कि मैं दौड़ में निकल गया हूं। मगर जैसे ही हमारी निगाहें टकराई, पता चला कि वो भी दौड़ में बाहर हो गया, दिल को थोड़ी ठंडक पहुंची। एक दूसरे को देख रहे थे, ऐसे निहार रहे थे जैसे वर्षों के बिछड़े आज मिले हो। मैंने उससे कहा जब मैं तुझे बिछड़ा था तब मैंने अपने आप को बहुत कोसा था। क्योंकि इस अंजान शहर में सभी नए नए चेहरे देखने को मिल रहें थे। मैं थोड़ा सा डर गया था, पता नहीं अब हम कब और कहां मिलेंगे? मेरे आसपास करीब हजारों की संख्या में लड़के थे, मगर वहां जिसकी तलाश नहीं उसे ना पाकर मैं दुखी हुआ था। मगर अब हम साथ हैं, हमनें एक दूसरे के हाथ थामे अपने बैग उठाए और मैदान के पीछे वाले दरवाजे से बाहर की ओर चल पड़े। फिर हम दोनों चलते चलते एक पीपल के वृक्ष के नीचे पहुंच गए, वहां बैठ कर राहत ली सांस ली। फिर हमनें अपने कपड़े बदले और आगे चलने की सोचने लगे। तभी हमें विशाल का ख्याल आया, जो लंबाई कम होने की वजह से बाहर हो गया था। विशाल के साथ साथ हमें उनका भी ख्याल आया जो हमसे एक दिन पहले ही आगरा निकल आए थे। फिर हमनें सोचा कि चलो ताजमहल चलते हैं शायद वहां पर सभी लोग मिल जाए। हमन बिना कुछ सोचे समझे ताजमहल देखने के लिए निकल पड़े।
ताजमहल यात्रा का वृतांत अगले ब्लॉग में किया जाएगा। शीर्षक होगा...मेरी ताजमहल यात्रा ।
लेख ~ विनय कुमार झा ।
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